अवतार वाद पर विशेष विभिन्न मान्यता, वेद में अवतार, वेदों में अवतारवाद, अवतारवाद का अर्थ
अवतारवाद की मान्यता और धरना ३ प्रकार की है। मै तीनो मान्यता को लिख रहा हूं। आप खुद से सत्य का निर्णय करे।
१, मान्यता मै
परमात्मा अवतार नहीं लेते है। ईश्वर अजन्मा है। आंनद रूप है। नित्य है, निर्गुण शुद्ध चेतनस्वरूप, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान निराकार, असीम है। नस नाड़ी आदि बंधन मै नहीं आते। इसीलिए ईश्वर का सीमित रूप मै आना संभव नहीं है। अत: ईश्वर का अवतार का होना बिल्कुल भी संभव नहीं है।
२, मान्यता
ईश्वर ज्ञान से पूर्ण है, सच्चितानंद है। सर्वशक्तिमान्, सर्वव्यापक, अनन्त, नित्य, अजन्मा, अविक्षेय, स्वयम्भू, सर्व द्रष्टा, जगत् का कर्ता, धर्ता और संहर्ता है। ये किसी भी प्रकार के बंधन मै नहीं बंधते, इसलिए ईश्वर देह आदि के आश्रय नहीं आते। जीव जो कि देह आश्रय होने से अल्पज्ञ है। अत: जीव का लक्ष्य है *ज्ञान* की प्राप्ति करना। अत: जिस जीव को ज्ञान की अनुभूति हुई जिन्होंने आत्मज्ञान साक्षात्कार किया, ईश्वर के ज्ञान का उक्त जीवात्मा मै अवतरित या प्रकाशित होना ही अवतारवाद है। इसीलिए उक्त देव पुरुष को यथा योग्य सम्मान पूजन आदी करना चाहिए।
३, मान्यता।
भगवान अजन्मे है। सृष्टि के रचना कर पालने वाले प्रलय करने वाले है। भगवान धरती पर आते रहते है। वे बालक भी बनते, युवा और वृद्ध भी होते है। बालक भगवान के लिए इस मान्यता वाले झूला बनाते है। जयंती मनाते है। कुछ दंपति पुत्र रूप मै मानते कुछ लोग कोई ना कोई रिश्ता बना कर भगवान को पूजते। कोई तो भगवान को साकार ही मानते है।
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